Tuesday, December 27, 2011

तुम ठीक तो हो न!

     याद है तुम्हे एक दिन जब मैं पगडंडी पर तुम्हारे पीछे भागी जा रही थी छड़ी का एक सिरा तुमने पकड़ रखा था और एक मैंने.वो छड़ी जो तुम्हारे कंधे पर टिकी थी.तुम्हे पता था कि मैं गिर जाउंगी अगर तुमने मुझे यूं न संभाला,लेकिन तुम ये जतलाना भी नहीं चाहते थे कि तुम्हे मेरी फ़िक्र है. फिर सरसों के खेतों के बीच खड़े हुए तुम्हारी एक फोटो भी खींची थी मैंने. उफ्फ! कितने नखरे दिखाते थे तुम फोटो खिंचवाने के नाम पर.लेकिन मैं भी पूरी जिद्दी-तुमसे लड़कर,मिन्नतें करके तुम्हारी फोटो खींच ही ली थी मैंने इस बार.फूली हुई सरसों के बीच खड़े तुम्हारा धूप में लाल हुआ चेहरा कैसा दिपदिपा रहा था! खेतों में उतरते हुए तुम गिर भी गए थे. मैं भागी-भागी आई थी. हौले से तुम्हारा कंधा सहलाकर पूछा था,"कहीं लगी क्या?तुम ठीक तो हो न!"
    आज पुरानी डायरी निकाली तो वो तस्वीर उसमें से फिसल कर नीचे गिरी.और मेरा पागलपन देखो! उस तस्वीर में तुम्हे सहला रही थी-कहीं तुम्हें लगी तो नहीं! इस तस्वीर को हमेशा जूम करके देखती हूँ ताकि तुम्हारी आँखों में झाँक कर देख सकूँ.
      कितने साल हो गए थे तुम्हें देखे. आज तुम्हे देखा तो लगा ही नहीं कि बीच में इतने सालों का फासला भी था.तुम्हे देखकर फिर वही अल्हड़पन जाग उठा है. मन करता कि फिर से वैसे ही बेफिक्री से तुम्हारे पीछे भागूँ छड़ी पकडे हुए जिसका एक सिरा तुमने अपने कंधे पर टिका रखा हो.तुम्हारी फिर से एक तस्वीर खींचूँ(और इस बार थोड़ी पास से) ताकि तुम्हारी आँखों में देखा कर सकूँ. तब भी जब तुम मेरे पास न रहो.
     पता है तुम्हे!तुम आज भी वैसे ही दीखते हो. हाँ! कनपटी पर कुछ चांदी के तार से दीखने लगे हैं.ओह!Conscious  मत हो. इन तारों के साथ तो और भी अच्छे लगते हो.तुम्हारे चेहरे का दूधिया रंग उम्र कि धूप में तप कर थोड़ा सुनहला हो गया है.और तुम्हारी आँखें, इनमे तो जैसे ज़िन्दगी खिलखिलाती है...लेकिन इनकी वो हीरे-सी चमक कहाँ छोड़ आये तुम? न! मुझसे नज़रें मत चुराओ...इनमे झाँकने दो मुझे...ये आँखें मुझसे आज भी कुछ नहीं छुपा सकती! थोड़ी थकी-सी लग रही हैं तुम्हारी आँखें. दिल चाहता है तुम्हारे पास आकर,तुम्हारा कंधा सहलाकर पूछूँ फिर से...तुम ठीक तो हो न! 

Thursday, December 22, 2011

यूं भी सोचना कभी

कुछ यूं सोचना कभी
कि तुम रेलिंग पर कुहनियाँ टिका
जाने कहा खोये हो
आंखें कहीं टिकीं हैं
शायद शून्य में
या वैजयंती के सुर्ख फूल पर ठहरी
ओस की बूँद पर
और मै पीछे से आकर
तुम्हारी आँखों पर
अपनी ठंडी हथेली रख देती हूँ
तुम चौंक कर पलटना
तब मैं न होऊंगी
कहीं पर भी नहीं

कुछ यूं भी सोचना कभी
कि आरामकुर्सी पर पड़े
तुम्हारी नींद से बोझिल पलकें
मुंद गईं हैं
मेज़ पर पड़ी डायरी के पन्ने
फडफडा रहे हो हवा से
तुम्हारी झपकी में खलल डालते
और मैंने तुम्हारा माथा चूमा हो
तुम आँखें खोलो तो देखो
कि मैं नहीं हूँ
कहीं भी नहीं

कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम खड़े हो
उस बरसाती नदी के पास
जो उफनकर बह रही हो
बलखाती
पत्थरों पर अपना आँचल झटकती
और तुम्हें लगे कि मेरी हंसी
खनकी है तुम्हारे कानो में
और मैं न मिलूँ तुम्हे
कही भी नहीं

कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम अकेले चले जा रहे हो
धुंध भरी राहों पर
खोये से
और अचानक मैं आकर
तुम्हारे गले में बाहें डाल
झूल जाऊं
तुम चौंक कर देखो
कि तुम्हारी  शॉल
कंधे से थोड़ी ढलकी पड़ी है
और हवा में हिना कि खुशबू भरी हो
और तुम फिर भी न पाओ मुझे
कही पर भी नहीं

कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम्हे मेरी बेतरह याद आये
और तुम
मेरे वजूद के कतरों की खातिर
अपनी दराजों की तलाशी लो
और कही किसी दराज़ में पड़ा मिले
तुम्हे मेरा आखिरी ख़त
उसे सीने से लगा लेना
बस पा लेना मुझे
मेरे बाद भी!

Tuesday, October 18, 2011

शिलाशेष

     उस दिन वो अचानक किसी पत्थर से टकराई.गौर से देखा तो एक मूरत सी उभरी.उसके होंठो पर एक मुस्कराहट खेल गयी और वो अपनी चोट,अपना दर्द सब भूल गई.उस पत्थर को इतना पूजा की खुदा बना दिया...
     एक दिन उसने महसूस किया की अब वो खुदा उसकी फरियाद नहीं सुनता,उस मूरत में बैठा ईश्वर हवा में कपूर बन विलीन हो गया है.देखा तो पाया कि मूर्ति खंडित हो गई है.कितना अशुभ है मंदिर में खंडित मूर्ति का होना! और उससे भी अशुभ उसे पूजना.
       पर इस शिलाशेष से जाने कैसा मोह हो गया है उसे कि इसे प्रवाहित भी नहीं करती.लेकिन इस मोह के समान्तर जाने कैसी विरक्ति है कि वो उसपर नज़र तक नहीं डालती!मंदिर में अनमने-भाव से अगरबत्तियाँ जला देती है,संझा का दीया भी जला देती है...जबकि उसे भली-भांति पता है कि ये शिला उसकी प्रार्थनाएं नहीं सुनेगी.पर अब उसे अपेक्षा ही कहाँ है इस सुनवाई की...अब वो कुछ कहती ही कहा है...
     उसके अन्दर जैसे कुछ मर-सा गया है जिसे कोई ईश्वर जिला नहीं सकता,उसे कोई शंखनाद झकझोर नहीं सकता,किसी दिए की रौशनी उसकी आँखों से परावर्तित नहीं हो सकती,कोई धूप उसकी आत्मा को महका नहीं सकती...

Sunday, August 07, 2011

कुछ छूटा तो नहीं

     कई दिनों के बाद कोई पोस्ट लिख रही हूँ...ऐसा नहीं कि इस बीच कोई  ख्याल नहीं आया...हजारों बातें थी बाँटने को...बस फुर्सत  ही नहीं थी..दम लेने कि भी नहीं...पिछले एक महीने खगडिया में रही...वही खगडिया जो हर साल कोसी का कोपभाजन बनता है...ये वो जगह है जहाँ रहते हुए बिहार सरकार को अपनी लम्बी सेवा देकर पापा अभी-अभी निवृत हुए है...तो बस पैकिंग और शिफ्टिंग में बुरी तरह व्यस्त रही!
     जबसे होश संभाला है तबसे बिहार और झारखण्ड के छोटे-छोटे शहरों में दो या तीन साल की निश्चित अवधि तक रहना  होता रहा...लेकिन खगडिया में कुछ ज्यादा रह लिए हम...चार साल! किसी शहर को अपनाने  के लिए चार साल कम नहीं होते शायद...मैंने भी अपनाया....लेकिन उस छोटे से शहर से ज्यादा  उसके बहार पसरे विराट सन्नाटे को...अमूमन सरकारी निवास थोक भाव में शहर की आबादी दूर बना दिए जाते हैं.गोया सरकारी अफसर शहर के बीच रहे तो शहर की 'मासूमियत' contaminate हो जाएगी. खैर.... मैं बचपन से ऐसे ही आवासों में रही हूँ.... आबादी से दूर...ये आवास कम एकांतवास ज्यादा लगता है और इस एकांतवास की एक तरह से बस आदत पद गई है....शायद इसीलिए वीराने मुझे कभी नहीं डराते...बस अपने से लगते हैं.
      खगडिया में घर का अहाता काफी बड़ा था..और उसके बाहर बड़ा सा खाली मैदान,जिसमे चहल-पहल सिर्फ तभी होती है जब कोई बड़ा नेता अपने चुनाव प्रचार पर होता है,या फिर बाढ़ पीडितो को राहत बांटी जाती है..बाकी समय यहाँ नीम सन्नाटा पसरा रहता है जो रात में और गहरा जाता है  और मेरे लिए रात को बालकनी की लाइट ऑफ करके घंटो बैठ करकर इस सन्नाटे को महसूस करना खगडिया के कुछ बेहद यादगार पलों में से हैं.इस बालकनी में बैठकर मैंने अपनी डायरी के कितने ही पन्ने रंगे हैं,सुबह की धूप सेंकते हुए अपने कितने ही नोट्स बनाये हैं,मम्मी के साथ बैठ कर हर  सुबह चाय पी है,अनगिनत नोवेल्स पढ़े हैं,२००८ की जुलाई में जो सागवान का पेड़ कैम्पस  के कोने में अपने हाथो से लगाया था उसे हर छुट्टी में लौटने पर और भी लम्बा हुआ देख मन ही मन कितना पुलकित हुई हूँ...
  
     उस शाम सात बजे तक सारा सामान ट्रक पर लोड हो चुका था..हमें अगली सुबह निकलना था...सारे परिचित भी मिलने की औपचारिकता पूरी करके जा चुके थे... मुश्किल से चुराई गयी थोड़ी-सी तन्हाई लिए मै कुर्सी पर बैठ कर ग्रिल से पैर टिका अपनी प्रिय मुद्रा धारण करने का लोभ त्याग नहीं पाई...क्योंकि मुझे पता था कि आज मै यहाँ आखिरी बार इस तरह बैठ रही हूँ...इस घर की अपनी इस सबसे प्यारी जगह को गुडबाय कहने का मुझे कोई और तरीका नहीं मिला...बस एक कसक रह गयी....बड़ा मन था की उस सागवान के पेड़ के पास जाकर एक बार उसे छू भर लेती लेकिन बस सोचती ही रह गयी...अच्छा कल..अच्छा कल...
     शायद आपको ये मेरा पागलपन लगे लेकिन उस पेड़ को न छू पाना मन में वैसी कसक भर गया जैसे कॉलेज छोड़ते हुए अपने बेस्ट फ्रेंड से गले मिलकर विदा न ले पाने की कसक....अगली सुबह हमारी गाड़ी अहाते को छोड़ ईंट बिछी कच्ची सड़क...फिर पक्की सड़क...फिर रेलवे लाइन क्रॉस करती हुई हाईवे पर रफ़्तार पकडती जा रही रही थी लेकिन मैं अब भी वही कही सागवान के पास थी...                                                                   

पापा ने अचानक पूछा,"सब चेक किया था,कुछ छूटा तो नहीं?"
 मम्मी ने कहा," नहीं"
 मन हुआ कह दूं,"हाँ पापा,वापस चलिए...मैं वहीं पीछे छूट गयी हूँ..."

Friday, June 24, 2011

शेष फिर

   एक अल्पविराम लूंगी...कुछ दिनों के लिए...तबतक कोई पाती नहीं क्योंकि वहां कोई कबूतर नहीं जिसके पंजों में ख़त बांधकर भेज सकूं...लेकिन और बहुत कुछ है ....सुकून भरी साँसे हैं...पढाई और कॉलेज की भाग-दौड़ से थोड़े दिनों की आज़ादी है....निकम्मों की तरह पूरा-पूरा दिन सोने की छूट है...मम्मी हैं जिनके पास न जाने कौन सा प्लास्टर ऑफ़ पेरिस है जो माथे से लेकर मन तक की दरारें भर देता है.....पापा हैं जिनसे थोडा सा डरती हूँ लेकिन  उनके बिना कुछ भी नहीं कर सकती.....और हाँ अभी तो कुछ दिनों के लिए दीदी और उसका छोटासा बेटा वेदांग भी है जो इन दिनों घर कि धुरी बन गया है,जिसके इर्दगिर्द  पूरा घर चक्कर काटता है...जिससे मिलने कि सबसे ज्यादा बेचैनी है मुझे....
    और भी बहुत कुछ है.....खिड़की के पास वाली क्यारी में लगे देसी गुलाब कि खुशबू है.....तेज़ हवा के साथ लयबद्ध पीपल के पत्तों का झुनझुना है... अमलतास के झूमर हैं.....कनेर की फूलों से लदी झाड़ें हैं..... रात में खुले आसमान के नीचे घंटों बैठ गप्पें मारने की फुर्सत है...अगर कम शब्दों में कहूं तो मैं अपने घर जा रही हूँ गर्मी की छुट्टियाँ बिताने....एक महीने बाद लौटूंगी देसी गुलाब खुशबू  से सराबोर पातियाँ लेकर...
   इस पोस्ट को publish करने से पहले उन सबको धन्यवाद देना चाहूंगी जिन्होंने मेरी पिछली सारी पोस्टें  पढ़ी और उनपर अपनी प्रतिक्रिया दी.....ये कुछ ऐसा ही है जैसे आप बोलते हैं तो चाहते है कि कोई सुने..... जब कोई नहीं सुनता तो लगता है कि बोले ही क्यूँ......और जब कोई सुनने वाला हो तो मन करता है कि दिल खोल कर बातें करें......कुछ अपनी कहे कुछ आपकी सुने.....
   अभी बस इतना ही...
   शेष फिर लिखूंगी...फिर कहूँगी....फिर सुनूंगी...
 

Thursday, June 23, 2011

कविता के लिए

    टीवी पर जनहित में जारी एक विज्ञापन देखा.उससे जो समझा वो ये कि जो लोग सिगरेट पीते हैं उनके फेफड़ों को निचोड़ें तो बहुत सारा टार इकठ्ठा हो जायेगा...
    मगर मै कुछ और सोच रही थी.एक बार एक ऐसे शख्श के मन को निचोड़िए जो आंसू में घोल-घोलकर उदासी को पीता रहता है.बोलिए क्या मिलेगा?ढेर सारी स्याही...वो भी नमकीन.ये स्याही उधार मिल जाये तो इसी में डुबो कर कोई कविता लिख डालूँ. बड़ी खूबसूरत कविता बनेगी...उदासी से अलंकृत...लावण्य से दिपदिपाती...एक सुंदर सी कविता.
    तो...कविता के लिए तलाश है एक बेहद गहरी उदासी की...

स्लेट पर लिखी चिठ्ठी


      हमारी अजीब-सी जोड़ी...तुम बहुत बोलते हो..मै बहुत सुनती हूँ..अच्छा लगता है..पर सोचती हूँ कभी तुम भी सुन लेते...पर कैसे? मै तो बोल ही नहीं सकती! कई बार सोचती हूँ कि तुम मेरी चुप्पी को पढ़ लेते..वैसे ही जैसे मैं तुम्हे पढ़ लेती हूँ,तब भी जब तुम कुछ नहीं कहते.
          फिर एक दिन सोचा...बहुत-बहुत सोचा...फिर बहुत सोच-सोचकर ..कई बार पोंछ-मिटा कर,अंततः एक चिठ्ठी लिख ही डाली...लेकिन स्लेट पर. ताकि उसे थोडा और edit  कर सकूं...एक-एक शब्द सोच-समझकर ताकि तुम शब्द दर शब्द मेरे मन को पढ़ सको.
         इस बीच कितने काम थे.इसी सब में भूल गई.न जाने कैसे पानी के कुछ छींटे पड़े और स्लेट पर लिखी उस चिठ्ठी के कुछ शब्द धुल गए.सोचा -कोई बात नहीं बाद में ठीक कर दूँगी. फिर पास रखे फूलदान की धूल झाडी.कपडा स्लेट से जा लगा.कुछ और शब्द मिट गए.सोचा-कोई बात नहीं,ये भी ठीक कर दूँगी.
      इस बीच अचानक तुम न जाने कहाँ से आये और वो आधी-अधूरी चिठ्ठी पढ़ ली.मैंने क्या लिखा...तुमने क्या पढ़ लिया! मैंने क्या चाहा...तुम क्या समझ बैठे!
     उफ़!अब तुम्हे कैसे समझाऊँ..ये तो roughwork थी! काश!मैंने स्लेट मेज़ पर रखकर न छोड़ी होती...या फिर  उसे छिपा दिया होता पक्की चिठ्ठी लिखने तक...या फिर... मैंने तुम्हे चिठ्ठी ही न लिखी होती...काश!!! 
 

Thursday, June 09, 2011

दहेज

    

माँ,
तुम क्या सहेजा करती हो
इस संदूक में?
ये गहने,ये साडियां
सब जानती हूँ मैं
ये सब तुम मुझे दोगी न
जब विदा करोगी मुझे   
अपने आँगन से.

लेकिन माँ,
अगर मैं कुछ और मांगूं  तो?
बोलो न,दोगी मुझे?
मुझे ये गहने मत देना  दहेज़ में
मुझे मेरा वो कलर-बॉक्स देना 
जिससे न जाने कितने ही
पेड़,पहाड़,झरनों और 
फूलों में रंग भरना सिखाया था तुमने 


और पापा,
मुझे किसी नए मॉडल की गाड़ी नहीं चाहिए
मुझे मेरी वो ट्राई-साइकिल देदेना
जो आपने मेरे दूसरे जन्मदिन पर दी थी
जिसपर बैठ कर मैं
आंगन के चक्कर काटा करती थी .

माँ,
कभी जब तुम बुलाओ 
और मैं न आ सकूं 
तो ये मत कहना 
"कोई बात नहीं बेटा,
तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं"
बस छड़ी उठाना और
 पिटाई करना,
जैसे तब करती थी
जब तुम्हारे  बुलाने पर भी 
खेल छोड़ कर नहीं आती थी  
तुम्हारी मदद के लिए.
माँ, तुम्हारी हर जरूरत पर
तुम्हारे पास होने का अधिकार 
मुझे दहेज में देकर विदा करना .


पापा,
जिस बेटी को बेटा बना कर पाला है 
उसे उसके कर्तव्यों के 
निर्वाह का अधिकार दहेज़ में जरूर देना.
जानती हूँ ,
इस आँगन में मेरे पायल की रुनझुन
अब नहीं होगी ,लेकिन 
कभी आकर आँगन की तुलसी को
पानी देने का अधिकार 
मुझे दहेज में जरूर देना.

Friday, May 27, 2011

अब हम बड़े हो गए हैं

कुछ अल्हड,मासूम-सा था
जिसको हम बचपन कहते थे
कितना रूठे,कितना माने
और फिर 
सब कुछ भूल गए

टीवी के स्विच तक
तब हाथ नहीं जा पाते थे  
कुर्सी-टेबल नहीं मिला
तो खुद घोडा बन जाते थे
छोटे भाई को उसपर चढ़ा
फिर टीवी ऑन करवाते थे
एक जंगल बुक के लिए
कल के क्रिकेट का झगडा
झट से भूल जाते थे

इतवार की दोपहर को
कॉमिक्स पढने के लिए
फिर से झगडा
मम्मी की डांट,पापा का थप्पड़ 
थोडा-सा रोये,थोड़ी देर सोये 
सोकर उठे तो सब भूल गए

याद रखते तो शाम को 
साथ कैसे खेल पाते?
पर खेल के बीच फिर झगडा
इस बार दोस्तों के साथ 
कल तक तो दोस्ती हो ही जाएगी
फिर साथ जो खेलना है 
छोटी ऊँगली से शुरू हुई कुट्टी 
हाथ मिलाते ही खत्म हो जाएगी


पर अब ये क्या हो गया है?
अब हम कुट्टी नहीं करते 
पर हाथ मिला कर भी
मन की गांठे नहीं खुलती  
अब हम झगड़ते नहीं 
बस बात मन में रख लेते हैं
न चीखते हैं,न रोते हैं
बस मुस्कुरा देते हैं
पर भूलते कभी नहीं

ओह हाँ!याद आया 
अब हम बड़े हो गए हैं न!

जिंदगी कि प्रूनिंग

    ज़िन्दगी बहुत प्यारी है.इतनी कि इसे गले लगाकर प्यार करने का मन करता है.लेकिन कही कुछ उलझे से धागे बंधन डाल देते हैं. हथों,पैरों में नहीं...मन में.और हम ठिठक कर रुक जाते हैं.
     कभी-कभी शून्य में पूछ बैठती हूँ."क्या ऐसा नहीं लगता कि ये उलझनें हम खुद ही पैदा करते हैं!"  एक ही सोच को पता नहीं कौन-सी अनिश्चित दिशा में इतनी दूर तक ले जाते हैं कि बाकि हर संभावित दिशा में ज़िन्दगी की growth लगभग रुक ही जाती है.और मुश्किल तो ये है कि जिंदगी का न कोई rewind बटन है और न undo.
      एक काम करते हैं-क्यूँ न इस ज़िन्दगी की pruning की जाये!वैसे ही जैसे हम बगीचे की बेतरतीबी से बढती hedge या lawn की करते हैं.इधर एक फुनगी छंटी ऊधर दूसरी कई कोंपलें अपनेआप  फूट पड़ी.वैसे ये तो कुछ plant hormones का खेल है,जिंदगी में ये सोच कहाँ तक सटीक बैठती है ये नहीं मालूम. हाँ,इतना जरूर पता है कि कभी-कभी ये बेहद जरूरी हो जाता है कि तन्द्रा भंग हो, विचारों कि श्रृंखला टूटे और मन के घोड़ों कि लगाम छोड़ दी जाये ताकि वो उन्मुक्त होकर जिस दिशा में चाहे सरपट भाग सके. कौन जाने इन बेलगाम घोड़ों में से एक हमारे लिए कोई नया रास्ता ढूंढ निकाले...किसी नई दिशा में!

Thursday, March 31, 2011

आह्लाद का एक मोती

दो दिन पहले माँ ने फ़ोन पर एक खुशखबरी दी.मै मौसी बन गई. मन फूला नहीं समाया.अतीत में पहुच गई.दीदी जो मेरी friend,philosopher,guide सब कुछ है.स्कूल में  मेरा हाथ पकड़ के मुझे मेरे क्लास रूम में छोड़ आती,जब पहली बार कॉलेज गई तो भी दीदी ही छोड़ने गई, सड़क पार करते हुए आज भी मेरा हाथ पकड़ लेती "रुको !देख कर क्रॉस  करना " .
जब उसकी शादी तो मै उसे विदा करते हुए बहुत रोई.कुछ दिन बाद मैंने एक गुल्लक खरीदी .मम्मी ने हंसके पूछा ये क्या अपना दहेज़ जोड़ने के लिए खरीदा है? मैंने कहा नहीं,ये तो इसलिए की जब  दीदी की बेटी होगी  तो उसे सोने का पेंडेंट दूँगी.ये सुनकर मम्मी खूब हंसी थी.
बेटी तो नहीं पर दीदी ने चाँद जैसे बेटे को जन्म दिया परसों.मन उसे देखने के लिए उतावला हो रहा है.भला हो  technology का,मम्मी ने फ़ोन पर उसकी आवाज़ सुनाई.अगर वो हमारी तरह समझदार होता तो मुझसे जरूर झगड़ पड़ता क्यूंकि वो जितनी देर रोता रहा मै फ़ोन पर उसकी आवाज़ सुन कर लगातार मुस्कुरा रही थी,मन हो रहा था की भाग कर जाऊ और उसे गले से लगा कर खूब सारा प्यार दूं. मै महाभारत के संजय की तरह महसूस कर रही हूँ अभी.मै देख सकती हूँ की वो कैसे हाथ-पांव मारता होगा,जब उसे कोई गोद में ले ले तो चुप हो कर ध्यान से उस स्पर्श को पहचानने की कोशिश करता होगा.और जब दीदी ने पहली बार अपने बेटे को छुआ होगा तो आह्लाद का एक मोती उसकी आँखों में चमक उठा होगा!शायद तब दीदी विस्मित हो उठी होगी "अरे!वो तुम ही हो जो इतने महीने मेरे अंदर थे ,जिसकी हर kick पर मैं समझ जाती थी की शायद अब मुझे कुछ खा लेना चाहिए,या शायद मुझे अब थोड़ी देर लेट जाना चाहिए,या  शायद मुझे अब थोडा टहल लेना चाहिए,तुम मेरे ही अंश हो न.तुमपे दुनिया की हर चीज न्योछावर"
     बस इश्वर हमारा सर्वस्व ले कर भी तुम्हे ढेर सारी खुशियाँ दे.तुम,जिसने दीदी को मातृत्व का गौरव दिया,घर में अपनी किलकारियों की लहरें भर दी,हमे बड़े होने बड़े होने का अहसास कराया,हमारी अगली पीढ़ी के पहले सदस्य,तुम्हारा हार्दिक स्वागत है.तुम्हे ढेरों आशीष.



Friday, March 18, 2011

कुछ क्षितिज सा दीखता है...

कुछ क्षितिज सा दीखता है. सोचती हूँ ये रास्ता तय करके देखूं. शायद इस सफ़र का छोर ही है वो जो कुछ रोशन सा दीखता है. जाने कबसे अलसाई सी  पड़ी थी. अब जो उठी हूँ तो बस अब रुकना नहीं है.न जाने कब से अँधेरे कमरे में रौशनी को टटोल रही थी.पागल हूँ मै भी ना,दियासलाई ढूंढ रही थी. लेकिन शाम अभी  हुई ही कहा थी बस खिड़की  बंद करके सोई थी जेठ की दोपहर में.वो तो अच्छा  हुआ जो तुमने दरवाज़ा खटखटाया,वरना ना जाने कब तक उनींदी पड़ी रहती. देखो तो खिड़की खोलते ही कैसे सिन्दूरी सूरज मुझ पर हंस रहा है...

       अब चलूँ . इससे  पहले कि सूरज क्षितिज के पार चला जाये मुझे उसतक पहुंचना है.ये क्षितिज का भ्रम क्या होता है जानती हूँ,कोई बच्ची थोड़े ना हूँ! फिर भी कभी-कभी भ्रम में जीना बड़ा सुकून देता है.यथार्थ के पीछे दौड़ते-भागते पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है,अगर एक छोटा सा भ्रम थोड़ी रौशनी ही भर दे ज़िन्दगी में तो हर्ज़ ही क्या है?
और पूजा ,तुम्हारा धन्यवाद कि तुमने आकर दस्तक दी वरना ना जाने कब तक सोई रहती मै!