Thursday, March 31, 2011

आह्लाद का एक मोती

दो दिन पहले माँ ने फ़ोन पर एक खुशखबरी दी.मै मौसी बन गई. मन फूला नहीं समाया.अतीत में पहुच गई.दीदी जो मेरी friend,philosopher,guide सब कुछ है.स्कूल में  मेरा हाथ पकड़ के मुझे मेरे क्लास रूम में छोड़ आती,जब पहली बार कॉलेज गई तो भी दीदी ही छोड़ने गई, सड़क पार करते हुए आज भी मेरा हाथ पकड़ लेती "रुको !देख कर क्रॉस  करना " .
जब उसकी शादी तो मै उसे विदा करते हुए बहुत रोई.कुछ दिन बाद मैंने एक गुल्लक खरीदी .मम्मी ने हंसके पूछा ये क्या अपना दहेज़ जोड़ने के लिए खरीदा है? मैंने कहा नहीं,ये तो इसलिए की जब  दीदी की बेटी होगी  तो उसे सोने का पेंडेंट दूँगी.ये सुनकर मम्मी खूब हंसी थी.
बेटी तो नहीं पर दीदी ने चाँद जैसे बेटे को जन्म दिया परसों.मन उसे देखने के लिए उतावला हो रहा है.भला हो  technology का,मम्मी ने फ़ोन पर उसकी आवाज़ सुनाई.अगर वो हमारी तरह समझदार होता तो मुझसे जरूर झगड़ पड़ता क्यूंकि वो जितनी देर रोता रहा मै फ़ोन पर उसकी आवाज़ सुन कर लगातार मुस्कुरा रही थी,मन हो रहा था की भाग कर जाऊ और उसे गले से लगा कर खूब सारा प्यार दूं. मै महाभारत के संजय की तरह महसूस कर रही हूँ अभी.मै देख सकती हूँ की वो कैसे हाथ-पांव मारता होगा,जब उसे कोई गोद में ले ले तो चुप हो कर ध्यान से उस स्पर्श को पहचानने की कोशिश करता होगा.और जब दीदी ने पहली बार अपने बेटे को छुआ होगा तो आह्लाद का एक मोती उसकी आँखों में चमक उठा होगा!शायद तब दीदी विस्मित हो उठी होगी "अरे!वो तुम ही हो जो इतने महीने मेरे अंदर थे ,जिसकी हर kick पर मैं समझ जाती थी की शायद अब मुझे कुछ खा लेना चाहिए,या शायद मुझे अब थोड़ी देर लेट जाना चाहिए,या  शायद मुझे अब थोडा टहल लेना चाहिए,तुम मेरे ही अंश हो न.तुमपे दुनिया की हर चीज न्योछावर"
     बस इश्वर हमारा सर्वस्व ले कर भी तुम्हे ढेर सारी खुशियाँ दे.तुम,जिसने दीदी को मातृत्व का गौरव दिया,घर में अपनी किलकारियों की लहरें भर दी,हमे बड़े होने बड़े होने का अहसास कराया,हमारी अगली पीढ़ी के पहले सदस्य,तुम्हारा हार्दिक स्वागत है.तुम्हे ढेरों आशीष.



Friday, March 18, 2011

कुछ क्षितिज सा दीखता है...

कुछ क्षितिज सा दीखता है. सोचती हूँ ये रास्ता तय करके देखूं. शायद इस सफ़र का छोर ही है वो जो कुछ रोशन सा दीखता है. जाने कबसे अलसाई सी  पड़ी थी. अब जो उठी हूँ तो बस अब रुकना नहीं है.न जाने कब से अँधेरे कमरे में रौशनी को टटोल रही थी.पागल हूँ मै भी ना,दियासलाई ढूंढ रही थी. लेकिन शाम अभी  हुई ही कहा थी बस खिड़की  बंद करके सोई थी जेठ की दोपहर में.वो तो अच्छा  हुआ जो तुमने दरवाज़ा खटखटाया,वरना ना जाने कब तक उनींदी पड़ी रहती. देखो तो खिड़की खोलते ही कैसे सिन्दूरी सूरज मुझ पर हंस रहा है...

       अब चलूँ . इससे  पहले कि सूरज क्षितिज के पार चला जाये मुझे उसतक पहुंचना है.ये क्षितिज का भ्रम क्या होता है जानती हूँ,कोई बच्ची थोड़े ना हूँ! फिर भी कभी-कभी भ्रम में जीना बड़ा सुकून देता है.यथार्थ के पीछे दौड़ते-भागते पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है,अगर एक छोटा सा भ्रम थोड़ी रौशनी ही भर दे ज़िन्दगी में तो हर्ज़ ही क्या है?
और पूजा ,तुम्हारा धन्यवाद कि तुमने आकर दस्तक दी वरना ना जाने कब तक सोई रहती मै!