Friday, May 27, 2011

अब हम बड़े हो गए हैं

कुछ अल्हड,मासूम-सा था
जिसको हम बचपन कहते थे
कितना रूठे,कितना माने
और फिर 
सब कुछ भूल गए

टीवी के स्विच तक
तब हाथ नहीं जा पाते थे  
कुर्सी-टेबल नहीं मिला
तो खुद घोडा बन जाते थे
छोटे भाई को उसपर चढ़ा
फिर टीवी ऑन करवाते थे
एक जंगल बुक के लिए
कल के क्रिकेट का झगडा
झट से भूल जाते थे

इतवार की दोपहर को
कॉमिक्स पढने के लिए
फिर से झगडा
मम्मी की डांट,पापा का थप्पड़ 
थोडा-सा रोये,थोड़ी देर सोये 
सोकर उठे तो सब भूल गए

याद रखते तो शाम को 
साथ कैसे खेल पाते?
पर खेल के बीच फिर झगडा
इस बार दोस्तों के साथ 
कल तक तो दोस्ती हो ही जाएगी
फिर साथ जो खेलना है 
छोटी ऊँगली से शुरू हुई कुट्टी 
हाथ मिलाते ही खत्म हो जाएगी


पर अब ये क्या हो गया है?
अब हम कुट्टी नहीं करते 
पर हाथ मिला कर भी
मन की गांठे नहीं खुलती  
अब हम झगड़ते नहीं 
बस बात मन में रख लेते हैं
न चीखते हैं,न रोते हैं
बस मुस्कुरा देते हैं
पर भूलते कभी नहीं

ओह हाँ!याद आया 
अब हम बड़े हो गए हैं न!

जिंदगी कि प्रूनिंग

    ज़िन्दगी बहुत प्यारी है.इतनी कि इसे गले लगाकर प्यार करने का मन करता है.लेकिन कही कुछ उलझे से धागे बंधन डाल देते हैं. हथों,पैरों में नहीं...मन में.और हम ठिठक कर रुक जाते हैं.
     कभी-कभी शून्य में पूछ बैठती हूँ."क्या ऐसा नहीं लगता कि ये उलझनें हम खुद ही पैदा करते हैं!"  एक ही सोच को पता नहीं कौन-सी अनिश्चित दिशा में इतनी दूर तक ले जाते हैं कि बाकि हर संभावित दिशा में ज़िन्दगी की growth लगभग रुक ही जाती है.और मुश्किल तो ये है कि जिंदगी का न कोई rewind बटन है और न undo.
      एक काम करते हैं-क्यूँ न इस ज़िन्दगी की pruning की जाये!वैसे ही जैसे हम बगीचे की बेतरतीबी से बढती hedge या lawn की करते हैं.इधर एक फुनगी छंटी ऊधर दूसरी कई कोंपलें अपनेआप  फूट पड़ी.वैसे ये तो कुछ plant hormones का खेल है,जिंदगी में ये सोच कहाँ तक सटीक बैठती है ये नहीं मालूम. हाँ,इतना जरूर पता है कि कभी-कभी ये बेहद जरूरी हो जाता है कि तन्द्रा भंग हो, विचारों कि श्रृंखला टूटे और मन के घोड़ों कि लगाम छोड़ दी जाये ताकि वो उन्मुक्त होकर जिस दिशा में चाहे सरपट भाग सके. कौन जाने इन बेलगाम घोड़ों में से एक हमारे लिए कोई नया रास्ता ढूंढ निकाले...किसी नई दिशा में!