Sunday, August 07, 2011

कुछ छूटा तो नहीं

     कई दिनों के बाद कोई पोस्ट लिख रही हूँ...ऐसा नहीं कि इस बीच कोई  ख्याल नहीं आया...हजारों बातें थी बाँटने को...बस फुर्सत  ही नहीं थी..दम लेने कि भी नहीं...पिछले एक महीने खगडिया में रही...वही खगडिया जो हर साल कोसी का कोपभाजन बनता है...ये वो जगह है जहाँ रहते हुए बिहार सरकार को अपनी लम्बी सेवा देकर पापा अभी-अभी निवृत हुए है...तो बस पैकिंग और शिफ्टिंग में बुरी तरह व्यस्त रही!
     जबसे होश संभाला है तबसे बिहार और झारखण्ड के छोटे-छोटे शहरों में दो या तीन साल की निश्चित अवधि तक रहना  होता रहा...लेकिन खगडिया में कुछ ज्यादा रह लिए हम...चार साल! किसी शहर को अपनाने  के लिए चार साल कम नहीं होते शायद...मैंने भी अपनाया....लेकिन उस छोटे से शहर से ज्यादा  उसके बहार पसरे विराट सन्नाटे को...अमूमन सरकारी निवास थोक भाव में शहर की आबादी दूर बना दिए जाते हैं.गोया सरकारी अफसर शहर के बीच रहे तो शहर की 'मासूमियत' contaminate हो जाएगी. खैर.... मैं बचपन से ऐसे ही आवासों में रही हूँ.... आबादी से दूर...ये आवास कम एकांतवास ज्यादा लगता है और इस एकांतवास की एक तरह से बस आदत पद गई है....शायद इसीलिए वीराने मुझे कभी नहीं डराते...बस अपने से लगते हैं.
      खगडिया में घर का अहाता काफी बड़ा था..और उसके बाहर बड़ा सा खाली मैदान,जिसमे चहल-पहल सिर्फ तभी होती है जब कोई बड़ा नेता अपने चुनाव प्रचार पर होता है,या फिर बाढ़ पीडितो को राहत बांटी जाती है..बाकी समय यहाँ नीम सन्नाटा पसरा रहता है जो रात में और गहरा जाता है  और मेरे लिए रात को बालकनी की लाइट ऑफ करके घंटो बैठ करकर इस सन्नाटे को महसूस करना खगडिया के कुछ बेहद यादगार पलों में से हैं.इस बालकनी में बैठकर मैंने अपनी डायरी के कितने ही पन्ने रंगे हैं,सुबह की धूप सेंकते हुए अपने कितने ही नोट्स बनाये हैं,मम्मी के साथ बैठ कर हर  सुबह चाय पी है,अनगिनत नोवेल्स पढ़े हैं,२००८ की जुलाई में जो सागवान का पेड़ कैम्पस  के कोने में अपने हाथो से लगाया था उसे हर छुट्टी में लौटने पर और भी लम्बा हुआ देख मन ही मन कितना पुलकित हुई हूँ...
  
     उस शाम सात बजे तक सारा सामान ट्रक पर लोड हो चुका था..हमें अगली सुबह निकलना था...सारे परिचित भी मिलने की औपचारिकता पूरी करके जा चुके थे... मुश्किल से चुराई गयी थोड़ी-सी तन्हाई लिए मै कुर्सी पर बैठ कर ग्रिल से पैर टिका अपनी प्रिय मुद्रा धारण करने का लोभ त्याग नहीं पाई...क्योंकि मुझे पता था कि आज मै यहाँ आखिरी बार इस तरह बैठ रही हूँ...इस घर की अपनी इस सबसे प्यारी जगह को गुडबाय कहने का मुझे कोई और तरीका नहीं मिला...बस एक कसक रह गयी....बड़ा मन था की उस सागवान के पेड़ के पास जाकर एक बार उसे छू भर लेती लेकिन बस सोचती ही रह गयी...अच्छा कल..अच्छा कल...
     शायद आपको ये मेरा पागलपन लगे लेकिन उस पेड़ को न छू पाना मन में वैसी कसक भर गया जैसे कॉलेज छोड़ते हुए अपने बेस्ट फ्रेंड से गले मिलकर विदा न ले पाने की कसक....अगली सुबह हमारी गाड़ी अहाते को छोड़ ईंट बिछी कच्ची सड़क...फिर पक्की सड़क...फिर रेलवे लाइन क्रॉस करती हुई हाईवे पर रफ़्तार पकडती जा रही रही थी लेकिन मैं अब भी वही कही सागवान के पास थी...                                                                   

पापा ने अचानक पूछा,"सब चेक किया था,कुछ छूटा तो नहीं?"
 मम्मी ने कहा," नहीं"
 मन हुआ कह दूं,"हाँ पापा,वापस चलिए...मैं वहीं पीछे छूट गयी हूँ..."