Tuesday, October 18, 2011

शिलाशेष

     उस दिन वो अचानक किसी पत्थर से टकराई.गौर से देखा तो एक मूरत सी उभरी.उसके होंठो पर एक मुस्कराहट खेल गयी और वो अपनी चोट,अपना दर्द सब भूल गई.उस पत्थर को इतना पूजा की खुदा बना दिया...
     एक दिन उसने महसूस किया की अब वो खुदा उसकी फरियाद नहीं सुनता,उस मूरत में बैठा ईश्वर हवा में कपूर बन विलीन हो गया है.देखा तो पाया कि मूर्ति खंडित हो गई है.कितना अशुभ है मंदिर में खंडित मूर्ति का होना! और उससे भी अशुभ उसे पूजना.
       पर इस शिलाशेष से जाने कैसा मोह हो गया है उसे कि इसे प्रवाहित भी नहीं करती.लेकिन इस मोह के समान्तर जाने कैसी विरक्ति है कि वो उसपर नज़र तक नहीं डालती!मंदिर में अनमने-भाव से अगरबत्तियाँ जला देती है,संझा का दीया भी जला देती है...जबकि उसे भली-भांति पता है कि ये शिला उसकी प्रार्थनाएं नहीं सुनेगी.पर अब उसे अपेक्षा ही कहाँ है इस सुनवाई की...अब वो कुछ कहती ही कहा है...
     उसके अन्दर जैसे कुछ मर-सा गया है जिसे कोई ईश्वर जिला नहीं सकता,उसे कोई शंखनाद झकझोर नहीं सकता,किसी दिए की रौशनी उसकी आँखों से परावर्तित नहीं हो सकती,कोई धूप उसकी आत्मा को महका नहीं सकती...