Tuesday, January 17, 2012

एक था मूर्तिकार

   "कहा था न तुमसे इस पत्थर में प्राण मत फूँकना" मूर्तिकार को आभास हुआ की ये आवाज़ उसकी बनायी मूर्ति से आयी है. शिल्पकार! तुम्हें याद है जब तुमने इस पहाड़ की चोटी पर पड़े कुछ बेतरतीब बेढब से चट्टान देखे थे.तुमने अपनी छेनी-हथौड़ी संभाल ली थी हाथों में.मन बना लिया था.इरादे पक्के कर लिए थे.पहाड़ की बेटी ने तभी तुम्हारी मंशा भाँप ली थी. कितने पत्थर लुढ्काए उसने तुम्हारे रस्ते में. तुम माने नहीं.यहाँ ऊपर चोटी तक चले आये. और चुना भी तो उस चट्टान को जिसमे पहाड़ की बेटी रहती थी.वो अपनी पूरी शक्ति से डटकर खड़ी रही कि तुम्हारे औज़ार निष्प्रभाव हो जाएँ. पर तुम ऐसे धुन के पक्के...माने नहीं.अपनी पूरी शक्ति लगा दी इस शिला को तराशने में.सिद्धहस्त हो!कितना सुन्दर रूप दे दिया तुमने इस पत्थर को.
    पर एक बात में तुम कच्चे निकले! पता है तुम्हे दुर्गा पूजा के लिए महीनो पहले से  मूर्तिकार माता की मूर्ति गढ़ने में पूरी तन्मयता से लगा होता है ताकि षष्ठी तक मूर्ति पूरी तरह से तैयार रहे. इस पूरे क्रम में उसे हर मोह,माया,कामना से ऊपर उठना होता है. माँ के अप्रतिम सौन्दर्य के प्रति उसके मन में बस श्रद्धा ही आनी चाहिए .अगर कोई अन्यथा भाव आ गया तो अनर्थ हो जायेगा.
    चलो माना.तुम्हे माता की मूर्ति कहाँ बनानी थी. तुम तो बस कलाकार हो, संगतराश हो. तुम्हारे हाथो में फन है कि तुम शिला को तराश कर शिल्प बना सको.चाहे जैसा रूप दे सको.लेकिन एक शिल्पी को अपनी कृति पर मुग्ध होने का अधिकार नहीं होता.तुमने ये सीमारेखा पार कर दी.मुग्ध हुए सो हुए उस पर ये हठ कि अब इसमें प्राण भी फूंकने हैं.
   लो! पत्थर में प्राण फूँक ही डाले तुमने! ये अनर्थ तुम्हे नहीं करना था. पत्थर में प्राण डाल हाड़-मांस का इंसान बना पाने की कूवत अगर तुममें होती तो इस मूर्ति के लिए फिर भी एक दुनिया होती. जिंदा इंसानों की  भीड़ में इसे मिला देते.लेकिन अब क्या करोगे इसका?
   एक काम करो. वहीं पहाड़ी पर एक मंदिर बना उसमे इसे स्थापित कर दो. लेकिन फिर एक मुश्किल होगी.तुम तो चल दोगे दूसरी मूर्तियाँ गढ़ने.पीछे जो इसकी आँखें गीली दिखेंगी लोगों को तो और सवाल उठेंगे.
   सुनो! मैं बताती हूँ.भक्त तो भोले होते हैं.उन्हें बहलाया जा सकता है. इस मंदिर की कोई प्रथा चला दो.जैसे अमूमन हर मंदिर की होती है.कहीं देवी की मूर्ति का आलते से अभिषेक किया जाता है तो कहीं बलि की प्रथा होती है. यहाँ जलाभिषेक की प्रथा प्रचलित कर दो.मूर्ति नखशिखांत सदैव जल से नहायी रहे.नेत्रों की आर्द्रता अभिषेक के जल का ही हिस्सा लगे. एक कुंड भी बनवा देना मंदिर से लगे जहाँ से जल लिया जाये अभिषेक के लिए.मंदिर में चढ़ाये गए जल की निकासी भी इसी कुंड में हो. भोले भक्तों को कहाँ पता चलेगा की तथाकथित देवी के अश्रुओं से ही प्रतिदिन उनका अभिषेक किया जा रहा है.

 कई साल बीत जाने के बाद जब तुम न रहोगे,जब बीच की कई पीढ़ियाँ लोप हो चुकी होंगी, ये बात एक लोककथा बन चुकी होगी. तब उस पहाड़ी के पास के किसी गाँव में कोई पोपले मुँह वाली बुढ़िया दादी बच्चों के एक झुण्ड को शाम के धुंधलके में कहानी सुना रही होगी,"एक था मूर्तिकार..."  कहानी ख़त्म होने पर कोई जिद्दी बच्चा कहेगा,"मैं जाऊंगा छेनी-हथौड़ी लेकर मूर्ति बनाने उस पहाड़ी पर", तो दादी उसे झिड़केगी,"न रे! इस गाँव में अब किसी को भी पत्थर तराशने की अनुमति नहीं है."
   
 

  कहते हैं वो मूर्तिकार कभी लौटकर नहीं आया. उस गाँव के सारे मूर्तिकारों ने अपनी छेनी-हथौड़ी उसी कुंड में डाल दी थी. उस पहाड़ी पर छेनी-हथौड़ी लेकर अब कोई नहीं जाता...और उस कुंड का पानी भीषण गर्मी में भी कभी नहीं सूखता...

Thursday, January 05, 2012

ये खूबसूरत-सी बेख्याली

    मेरा कोरा दुपट्टा जिसे लहरिया रंगना था...थोडा नीला,थोडा आसमानी और बाकी वैसे का वैसा छोड़ना था...एकदम कोरा,सफ़ेद,बेदाग...उस मन के जैसा जिसे किसी ने छुआ न हो कभी! रंगरेज़ा! क्या किया तूने? कोरे हिस्सों पर आसमानी छींटें बिखेर दिए.और उसपर इतना पक्का रंग! कितना भी धो लूं,छूटेगा नहीं ये.पर धोऊँ कैसे इसे! हर बार हाथ में लेकर धोने का मन बनाती हूँ. तुम्हें कोसती हूँ. दुपट्टा खराब कर दिया मेरा. जी चाहता है तेरे सर दे मारूँ,"तू ही रख! मुझे नहीं चाहिए तेरी लापरवाही का नमूना".
    फिर वो कोरा हिस्सा-हाँ वही जिसपर आसमानी छींटें पड़े हैं,उसे अपनी बायीं हथेली पर फैलाती हूँ.उन आसमानी  छींटों पर दाहिने हाथ की तीन उंगलियाँ फेरती हूँ आहिस्ता.फिर मुस्कुरा उठती हूँ.रहने ही क्यूँ न दूं इसे यूँ ही. इतना बुरा भी तो नहीं लगता. या यूं कह लो की मन में ये ख्याल आ जाता है कि तुमने कैसी बेफिक्री में इसे रंगा होगा कि तुम्हारे सुघड़ हाथों से ऐसी चूक हो गयी होगी, कि तुमने चाहा थोड़े होगा, कि ये भूल तुम्हारे कारोबार का हिस्सा जो नहीं, कि इस चूक कि कोई कीमत जो नहीं चुकाई मैंने, कि मैं चुका भी नहीं सकती. तुम्हारी ये खूबसूरत-सी बेख्याली...ओह! अनजाने ही आयी है मेरे हिस्से में तुम्हारी ये बेपरवा गुस्ताखी.फिर तो ये अनमोल है. सहेज ही क्यूँ न लूं इसे.
   तहें लगाऊं इस दुपट्टे कि कुछ इस तरह कि ये छींटें ऊपर से किसी को नज़र न आयें, अन्दर की तहों में चले जायें. पर ज्यादा अन्दर नहीं. बस इतना भर कि जब ऊपर कि तहों को एक कोने से पकड़ के उठाऊं तो अन्दर वाली तह में वो छींटें दीख पाएं. हाँ वही! कोरे दुपट्टे पर आसमानी से! उनपर उँगलियाँ फेरती हुई मन ही मन  सोचा करूंगी तुम्हे. कि तुम तो अब भी डूबे होगे उन्हीं रंगों में .बैठे होगे बहुत-से रंग भरे हौजों के बीच में, किसी पागल लड़की का कोरा दुपट्टा लिए हाथों में...पेशानी पे बल और दो-एक उलझी लटें लिए...खोये से...दुनिया से बेख्याल इस ख्याल में डूबे कि किस दुपट्टे को कौन-सा रंग देना है- गुलाबी,आसमानी,धानी,चम्पई,सुरमई...