Sunday, February 26, 2012

आख़िरी तारीख़ के लिए अभी कई पन्ने पलटने हैं!

कभी सोचा है
कैसा होता है इंतज़ार करना
जब दिनों की गिनती
उँगलियों के पोरों की हद
पार कर जाए


कैसा होता होगा
हसरतों की बुनियाद पर
सपनों का घर बनाना
जबकि हर ईंट रखते हुए
कांपते हो हाथ
कि नींव अभी कच्ची है


पतझड़ के मौसम में
दरख्तों के बीच जाती सड़क पर
चलती हुई एक लड़की
सूखे पत्तों पर
डरती हुई पाँव रखती है
जाने किस पत्ती के पीछे
किसी मकडी ने कभी
अपने अरमान बुने होंगे
कुचल न जाएँ कहीं
हाय लगेगी


कि नींद से जाग कर भी
कोई आँखे न खोले
इस डर से कहीं
मरीचिका न टूटे
कि सचमुच
दूर-दूर तक
कोई नहीं है


कैसा होता है
यादों को सहेजना
जबकि मेरे पास
निशानी के तौर पर भी
तुम्हारा कुछ भी नहीं


लम्बी होती परछाइयों
और बढती ठण्ड वाली शामों में
शॉल को कसकर लपेटते हुए
ये सोचना कि
जाने कैसा होगा मौसम
तुम्हारे शहर में


हर रोज़ कैलेंडर में
तारीख़ काटते हुए ये सोचना
कि आख़िरी तारीख़ के लिए
अभी कई पन्ने पलटने हैं!