हमारी अजीब-सी जोड़ी...तुम बहुत बोलते हो..मै बहुत सुनती हूँ..अच्छा लगता है..पर सोचती हूँ कभी तुम भी सुन लेते...पर कैसे? मै तो बोल ही नहीं सकती! कई बार सोचती हूँ कि तुम मेरी चुप्पी को पढ़ लेते..वैसे ही जैसे मैं तुम्हे पढ़ लेती हूँ,तब भी जब तुम कुछ नहीं कहते.
फिर एक दिन सोचा...बहुत-बहुत सोचा...फिर बहुत सोच-सोचकर ..कई बार पोंछ-मिटा कर,अंततः एक चिठ्ठी लिख ही डाली...लेकिन स्लेट पर. ताकि उसे थोडा और edit कर सकूं...एक-एक शब्द सोच-समझकर ताकि तुम शब्द दर शब्द मेरे मन को पढ़ सको.
इस बीच कितने काम थे.इसी सब में भूल गई.न जाने कैसे पानी के कुछ छींटे पड़े और स्लेट पर लिखी उस चिठ्ठी के कुछ शब्द धुल गए.सोचा -कोई बात नहीं बाद में ठीक कर दूँगी. फिर पास रखे फूलदान की धूल झाडी.कपडा स्लेट से जा लगा.कुछ और शब्द मिट गए.सोचा-कोई बात नहीं,ये भी ठीक कर दूँगी.
इस बीच अचानक तुम न जाने कहाँ से आये और वो आधी-अधूरी चिठ्ठी पढ़ ली.मैंने क्या लिखा...तुमने क्या पढ़ लिया! मैंने क्या चाहा...तुम क्या समझ बैठे!
उफ़!अब तुम्हे कैसे समझाऊँ..ये तो roughwork थी! काश!मैंने स्लेट मेज़ पर रखकर न छोड़ी होती...या फिर उसे छिपा दिया होता पक्की चिठ्ठी लिखने तक...या फिर... मैंने तुम्हे चिठ्ठी ही न लिखी होती...काश!!!
4 comments:
खुशबू के शिलालेख.
कुमार विस्वास जी की कुछ पंक्तियाँ यार आ गयीं..
मेरी आँखों में भी अंकित समर्पण की रिचाएं थीं..
उन्हें कुछ अर्थ मिल जाता जो तुमने पढ़ लिया होता...
मतलब यह फिर नहीं कह पाए / समझा पाए
उफ़
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