ज़िन्दगी बहुत प्यारी है.इतनी कि इसे गले लगाकर प्यार करने का मन करता है.लेकिन कही कुछ उलझे से धागे बंधन डाल देते हैं. हथों,पैरों में नहीं...मन में.और हम ठिठक कर रुक जाते हैं.
कभी-कभी शून्य में पूछ बैठती हूँ."क्या ऐसा नहीं लगता कि ये उलझनें हम खुद ही पैदा करते हैं!" एक ही सोच को पता नहीं कौन-सी अनिश्चित दिशा में इतनी दूर तक ले जाते हैं कि बाकि हर संभावित दिशा में ज़िन्दगी की growth लगभग रुक ही जाती है.और मुश्किल तो ये है कि जिंदगी का न कोई rewind बटन है और न undo.
एक काम करते हैं-क्यूँ न इस ज़िन्दगी की pruning की जाये!वैसे ही जैसे हम बगीचे की बेतरतीबी से बढती hedge या lawn की करते हैं.इधर एक फुनगी छंटी ऊधर दूसरी कई कोंपलें अपनेआप फूट पड़ी.वैसे ये तो कुछ plant hormones का खेल है,जिंदगी में ये सोच कहाँ तक सटीक बैठती है ये नहीं मालूम. हाँ,इतना जरूर पता है कि कभी-कभी ये बेहद जरूरी हो जाता है कि तन्द्रा भंग हो, विचारों कि श्रृंखला टूटे और मन के घोड़ों कि लगाम छोड़ दी जाये ताकि वो उन्मुक्त होकर जिस दिशा में चाहे सरपट भाग सके. कौन जाने इन बेलगाम घोड़ों में से एक हमारे लिए कोई नया रास्ता ढूंढ निकाले...किसी नई दिशा में!
1 comment:
"रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।"
रामधरी सिंह 'दिनकर' कि ये कविता याद आ गयी पोस्ट पढकर...पहले miss हो गयी थी ये पोस्ट...शानदार है...
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