कुछ अल्हड,मासूम-सा था
जिसको हम बचपन कहते थे
कितना रूठे,कितना माने
और फिर
सब कुछ भूल गए
टीवी के स्विच तक
तब हाथ नहीं जा पाते थे
कुर्सी-टेबल नहीं मिला
तो खुद घोडा बन जाते थे
छोटे भाई को उसपर चढ़ा
फिर टीवी ऑन करवाते थे
एक जंगल बुक के लिए
कल के क्रिकेट का झगडा
झट से भूल जाते थे
इतवार की दोपहर को
कॉमिक्स पढने के लिए
फिर से झगडा
मम्मी की डांट,पापा का थप्पड़
थोडा-सा रोये,थोड़ी देर सोये
सोकर उठे तो सब भूल गए
याद रखते तो शाम को
साथ कैसे खेल पाते?
पर खेल के बीच फिर झगडा
इस बार दोस्तों के साथ
कल तक तो दोस्ती हो ही जाएगी
फिर साथ जो खेलना है
छोटी ऊँगली से शुरू हुई कुट्टी
हाथ मिलाते ही खत्म हो जाएगी
पर अब ये क्या हो गया है?
अब हम कुट्टी नहीं करते
पर हाथ मिला कर भी
मन की गांठे नहीं खुलती
अब हम झगड़ते नहीं
बस बात मन में रख लेते हैं
न चीखते हैं,न रोते हैं
बस मुस्कुरा देते हैं
पर भूलते कभी नहीं
ओह हाँ!याद आया
अब हम बड़े हो गए हैं न!
2 comments:
इंसान जैसे जैसे बड़ा होता जाता है..उसके ज्ञान का दायरा तों बढाता जाता है पर मानसिकता सीमित होती जाती है शायद...हर पल में जिंदगी ढूँढने कि बड़ी बातें करते तों हैं हम पर जिंदगी कि छोटी खुशियाँ खुद ही नहीं ढूंढ पाते...
अच्छी लगी आपकी रचना...
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