कुछ यूं सोचना कभी
कि तुम रेलिंग पर कुहनियाँ टिका
जाने कहा खोये हो
आंखें कहीं टिकीं हैं
शायद शून्य में
या वैजयंती के सुर्ख फूल पर ठहरी
ओस की बूँद पर
और मै पीछे से आकर
तुम्हारी आँखों पर
अपनी ठंडी हथेली रख देती हूँ
तुम चौंक कर पलटना
तब मैं न होऊंगी
कहीं पर भी नहीं
कुछ यूं भी सोचना कभी
कि आरामकुर्सी पर पड़े
तुम्हारी नींद से बोझिल पलकें
मुंद गईं हैं
मेज़ पर पड़ी डायरी के पन्ने
फडफडा रहे हो हवा से
तुम्हारी झपकी में खलल डालते
और मैंने तुम्हारा माथा चूमा हो
तुम आँखें खोलो तो देखो
कि मैं नहीं हूँ
कहीं भी नहीं
कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम खड़े हो
उस बरसाती नदी के पास
जो उफनकर बह रही हो
बलखाती
पत्थरों पर अपना आँचल झटकती
और तुम्हें लगे कि मेरी हंसी
खनकी है तुम्हारे कानो में
और मैं न मिलूँ तुम्हे
कही भी नहीं
कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम अकेले चले जा रहे हो
धुंध भरी राहों पर
खोये से
और अचानक मैं आकर
तुम्हारे गले में बाहें डाल
झूल जाऊं
तुम चौंक कर देखो
कि तुम्हारी शॉल
कंधे से थोड़ी ढलकी पड़ी है
और हवा में हिना कि खुशबू भरी हो
और तुम फिर भी न पाओ मुझे
कही पर भी नहीं
कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम्हे मेरी बेतरह याद आये
और तुम
मेरे वजूद के कतरों की खातिर
अपनी दराजों की तलाशी लो
और कही किसी दराज़ में पड़ा मिले
तुम्हे मेरा आखिरी ख़त
उसे सीने से लगा लेना
बस पा लेना मुझे
मेरे बाद भी!
कि तुम रेलिंग पर कुहनियाँ टिका
जाने कहा खोये हो
आंखें कहीं टिकीं हैं
शायद शून्य में
या वैजयंती के सुर्ख फूल पर ठहरी
ओस की बूँद पर
और मै पीछे से आकर
तुम्हारी आँखों पर
अपनी ठंडी हथेली रख देती हूँ
तुम चौंक कर पलटना
तब मैं न होऊंगी
कहीं पर भी नहीं
कुछ यूं भी सोचना कभी
कि आरामकुर्सी पर पड़े
तुम्हारी नींद से बोझिल पलकें
मुंद गईं हैं
मेज़ पर पड़ी डायरी के पन्ने
फडफडा रहे हो हवा से
तुम्हारी झपकी में खलल डालते
और मैंने तुम्हारा माथा चूमा हो
तुम आँखें खोलो तो देखो
कि मैं नहीं हूँ
कहीं भी नहीं
कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम खड़े हो
उस बरसाती नदी के पास
जो उफनकर बह रही हो
बलखाती
पत्थरों पर अपना आँचल झटकती
और तुम्हें लगे कि मेरी हंसी
खनकी है तुम्हारे कानो में
और मैं न मिलूँ तुम्हे
कही भी नहीं
कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम अकेले चले जा रहे हो
धुंध भरी राहों पर
खोये से
और अचानक मैं आकर
तुम्हारे गले में बाहें डाल
झूल जाऊं
तुम चौंक कर देखो
कि तुम्हारी शॉल
कंधे से थोड़ी ढलकी पड़ी है
और हवा में हिना कि खुशबू भरी हो
और तुम फिर भी न पाओ मुझे
कही पर भी नहीं
कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम्हे मेरी बेतरह याद आये
और तुम
मेरे वजूद के कतरों की खातिर
अपनी दराजों की तलाशी लो
और कही किसी दराज़ में पड़ा मिले
तुम्हे मेरा आखिरी ख़त
उसे सीने से लगा लेना
बस पा लेना मुझे
मेरे बाद भी!
12 comments:
बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ, हर एक वस्तु उद्दीपन बन जाये जब।
कि उसी रेलिंग पे अक्सर,
चंद टुकड़े रात की बनी रोटी के फैलाता हूँ,
किसी काले कौवे को बुलाने के लिए,
सब कहते हैं कागा मेहमान ले आता है...
ज्यादा किसी को तो जानता नहीं इस दुनिया में,
बस यही उम्मीद बाकी है , कि कभी तो तुम आओ....
totally awesome..!!
बहुत खूब ... आपकी कल्पना की उड़ान को शब्द दिए हैं आपने ... लाजवाब लिखा हैं ...
बेहतरीन .. यूँ भी सोचा है कई बार ..
वाह! बहुत खूब
Wow!
कभी जो मैं खो जाऊँ तो मुझे इस कविता में ढूंढ लेना...कहीं से कोई बिखरा हुआ अक्स मिल ही जाएगा...भले पूरा न सही, अधूरा सही...
कच्ची मिट्टी से प्रतिमा गढ़ना कोई तुमसे सीखे!
बहुत सुन्दर और अनोखी प्रस्तुति, बेहतरीन!
गज़ब की भावाव्यक्ति।
यादों के झुरमुट में ये अनोखा संगम ... शब्दों का ...
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