माँ,
तुम क्या सहेजा करती हो
इस संदूक में?
ये गहने,ये साडियां
ये गहने,ये साडियां
सब जानती हूँ मैं
ये सब तुम मुझे दोगी न
जब विदा करोगी मुझे
अपने आँगन से.
लेकिन माँ,
अगर मैं कुछ और मांगूं तो?
बोलो न,दोगी मुझे?
मुझे ये गहने मत देना दहेज़ में
मुझे मेरा वो कलर-बॉक्स देना
जिससे न जाने कितने ही
पेड़,पहाड़,झरनों और
फूलों में रंग भरना सिखाया था तुमने
और पापा,
मुझे किसी नए मॉडल की गाड़ी नहीं चाहिए
मुझे मेरी वो ट्राई-साइकिल देदेना
जो आपने मेरे दूसरे जन्मदिन पर दी थी
जिसपर बैठ कर मैं
आंगन के चक्कर काटा करती थी .
माँ,
कभी जब तुम बुलाओ
और मैं न आ सकूं
तो ये मत कहना
"कोई बात नहीं बेटा,
तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं"
बस छड़ी उठाना और
पिटाई करना,
जैसे तब करती थी
जब तुम्हारे बुलाने पर भी
खेल छोड़ कर नहीं आती थी
तुम्हारी मदद के लिए.
माँ, तुम्हारी हर जरूरत पर
तुम्हारे पास होने का अधिकार
मुझे दहेज में देकर विदा करना .
पापा,
जिस बेटी को बेटा बना कर पाला है
उसे उसके कर्तव्यों के
निर्वाह का अधिकार दहेज़ में जरूर देना.
जानती हूँ ,
इस आँगन में मेरे पायल की रुनझुन
अब नहीं होगी ,लेकिन
कभी आकर आँगन की तुलसी को
पानी देने का अधिकार
मुझे दहेज में जरूर देना.
3 comments:
लाजवाब.....सराहनीय लेखन के लिए बधाई।
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
तो ये मत कहना
"कोई बात नहीं बेटा,
तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं"
बस छड़ी उठाना और
पिटाई करना,
जैसे तब करती थी
जब तुम्हारे बुलाने पर भी
खेल छोड़ कर नहीं आती थी
इन शब्दों ने हर लड़की के अंतस का दर्द कह दिया
beahd khoobsurat
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