Thursday, July 05, 2012

वटवृक्ष

"कल खगौल चलना है तुम चलोगी?"

  आर्द्रा को याद आया कल तो नानाजी की बरसी है.खगौल उसका नानीघर है.जहां जाने के कई दिन पहले से ही बचपन में ख़ुशी के मारे नींद उड़ जाती थी वहाँ जाने से पहले अब जाने क्यूँ वो दो बार सोचती है.और ननिहाल भी तो कैसी जहाँ न नानी हैं न नाना!

  बचपन में  गर्मी की पूरी छुट्टियां पटना में बीतती थी. नानीघर और दादीघर दोनों ही पटना में थे तो आधी छुट्टी पाटलिपुत्र कालोनी में दादा-दादी के पास और आधी नाना और मामू  के पास. नानी  की तो बस यादें ही थी जो धुंधली पड़  गई   ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरों को देखकर या  नन्हे-नन्हे ऊनी स्वेटर-मोजों छूकर महसूस की जा सकें. लेकिन नानी के न होने पर भी ननिहाल कभी अधूरी नहीं लगी. जाने नानाजी ने उस घर को कैसे संभाला हुआ था. घर के किसी भी कोने से गृहिणी के न होने का अधूरापन नहीं झलकता था.
  सुबह नहाने से लेकर पूजा पूरी होने तक रुद्राष्टक का उनका लयबद्ध उच्चारण पूरे घर में गूंजता और धूप  के साथ हर कोने में रच-बस जाता. उसी आवाज़ के साथ आर्द्रा की नींद खुलती और आँखे मलती हुई वो जाकर  पूजा के कमरे में उनके साथ बैठ जाती और उनके साथ-साथ दोहराने की कोशिश करती:

नमामि शमीशान निर्वाण रूपं |
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेद स्वरूपं ||

  पूजा ख़त्म करके वो  गौरेयों को दाना डालते. उनके कमरे की खिड़की पर एक बर्तन में धान के दाने हमेशा भरे होते थे गौरेयों के लिए. फिर पौधों में पानी डालते. ढेर सारे बेले, गुडहल और लाल देसी गुलाब के पौधे. एक मोटे तने वाला गुलाब का पौधा तो न जाने कितने साल  पुराना था. इन पौधों से फूल तोड़ने की हिम्मत न तो आर्द्रा के दोनों भाइयों में थी,न मम्मी में और न दोनों मामू में. बस एक आर्द्रा थी  जिसे वापसी के वक़्त एक फूल मिलता था जिसे वो बड़ी शान से अपनी फ्रॉक में टाँक लेती.

    रात का खाना खाके आर्द्रा छत पर उनके साथ लेटती  और कहानियाँ सुनती- सप्तर्षि की, वेद-पुराणों की,पुरखों की और न जाने कहाँ-कहाँ की कहानियाँ.


  नानाजी को गए  कल बारह साल हो जायेंगे. इन बारह सालों में मुश्किल से तीन या चार बार गयी होगी वो उस घर में.एक तो वैसे भी अब वहाँ कोई रहता नहीं. दोनो मामू कामके चक्कर में  बाहर जा बसे..कभी कभार छुट्टियों में ही आ पाते थे.घर का दरवाज़ा खुलता तो बेतरतीबी से बिखरे कुछ लिफाफे स्वागत करते जिनमे कुछ बिजली के बिल होते या कुछ ऐसी ही ज़रूरी-गैरज़रूरी डाक और कभी-कभी किसी की शादी का कार्ड जो दूरदराज के किसी रिश्तेदार या जान-पहचान वाले ने भेजा होगा जिसे अब तक शायद ये नहीं पता होगा कि  अब यहाँ कोई नहीं रहता.
      आर्द्रा को अब भी याद है जब नानाजी के जाने के बाद पहली बार वहाँ गई तो अनायास ही जाकर उसी गुलाब की झाड के पास खड़ी हो गई.पौधे की जगह एक काँटों वाले ठूंठ ने ले ली थी.मन न जाने कैसा हो गया.उसे पता ही नहीं चला कब बड़ी मामी आकर पीछे खड़ी हो गईं थी--
" देखो न बेटा! खाद पानी सब देते हैं फिरभी जाने कैसे सूख गया."
 मामी ठीक कह रही थी, पौधे को खाद पानी ज़रूर मिला होगा लेकिन मामी उसे वो कैसे दे पातीं जो उनके पास था ही नहीं...
   कुछ पौधे घने पेड़ की छाँव में ही पनपते हैं.नानाजी ऐसा ही एक वटवृक्ष थे जिनकी छाँव में आर्द्रा की ननिहाल  नानी के बिना भी नानीघर था लेकिन अब ममेरे भाई-बहनों से भरा घर भी खाली सा लगता है.
   कभी नानाजी ने ही उसे बताया था: आवाजें  कहीं नहीं जातीं, यहीं रह जाती हैं ब्रह्माण्ड में कहीं... आर्द्रा पूजा के कमरे में जाकर घंटों बैठी रही थी...शायद वो महसूस कर पाए हुमाद के धुएं में रचा-बसा अस्फुट-सा भी  उनका उच्चारण:
    नमामि शमीशान निर्वाण रूपं....

14 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

छाँव जब चली जाती है,
तब तब बहुत याद आती है।

रश्मि प्रभा... said...

आवाजें कहीं नहीं जातीं, यहीं रह जाती हैं ब्रह्माण्ड में कहीं...सच कहा नाना जी ने

देवांशु निगम said...

तुम्हारी पोस्ट बार बार रस्किन की किसी न किसी कहानी की याद दिला जाती है | एक कहानी है जिसमे एक आदमी अपने घर शेर पालता है, जब तक शेर छोटा रहता है तब तक तो ठीक पर जब एक दिन बड़ा हो जाता है तो पड़ोसियों के कहने पर वो शेर को चिड़ियाघर में छोड़ आता है | फिर जब कई सालों बाद वो शेर से मिलने जाता है तो शेर उससे बड़े प्यार से मिलता है | बाद में पता चलता है की उसके शेर की मौत तो बहुत पहले हो गयी थी ये दूसरा शेर था, बड़ा बिगडैल किस्म का, आज तक केवल उसी से प्यार से मिला था |

ये जानवर, पौधे ये सब बे-जुबान होकर भी इंसान की जुबान बहुत अच्छी तरीके से समझते हैं | किसी का प्यार से छूना भर किसी दूसरे की हज़ार कोशिशों से बड़ा होता है |

और आवाजें वाकई में ख़त्म नहीं होती, प्रतिध्वनी बनकर आती ही रहती हैं !!!!!! बढ़िया पोस्ट !!!

दिगम्बर नासवा said...

भ्रम्हांड का तो पता नहीं पर दिल में जरूर रह जाती हैं वो यादें वो आवाजें जो हमेशा साथ रहती हैं ... दिल में उतर गई आपकी पोस्ट ..

डॉ .अनुराग said...

एक इंग्लिश फिल्म है नाम अभी याद नहीं आ रहा .दादा -पोते के रिश्तो पर है एक विश्वास पर ,जीवन के कुछ हिस्सों पर यकीन पर वाही याद आई .तुम्हे पढना सुखद रहा .....

प्रेम सरोवर said...

कभी नानाजी ने ही उसे बताया था: आवाजें कहीं नहीं जातीं, यहीं रह जाती हैं ब्रह्माण्ड में कहीं... आर्द्रा पूजा के कमरे में जाकर घंटों बैठी रही थी...शायद वो महसूस कर पाए हुमाद के धुएं में रचा-बसा अस्फुट-सा भी उनका उच्चारण: नमामि शमीशान निर्वाण रूपं....

आपके पोस्ट पर प्रथम बार आया हूं। बहुत ही हृदयस्पर्शी पोस्ट। मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

Satish Saxena said...

प्रभावशाली कलम ...
आभार आपका !

ANULATA RAJ NAIR said...

सच में आँखें भर आयीं.....
मैं भी अपने नाना नानी से बहुत जुडी हुई थी.....और उनके बाद भी न वहाँ कोई पौध पनपी...न फूल खिले....
बहुत प्यारा लिखा है आपने.

अनु

दिगम्बर नासवा said...

आँखे नम कर गई आपकी यादें ... प्रेम के धागे इस न सिर्फ इंसान बल्कि पेड़ बौधे भी जुड जाते हैं ...

Saumya said...

kya kahun....ajeeb si khamoshi ghir gayi hai aaspass....sach mein nishabd hun.....ye panktiyan: मामी उसे वो कैसे दे पातीं जो उनके पास था ही नहीं...aur कभी नानाजी ने ही उसे बताया था: आवाजें कहीं नहीं जातीं, यहीं रह जाती हैं ब्रह्माण्ड में कहीं kitni sacchi hain...emotions overflowing.....

संजय भास्‍कर said...

बढ़िया पोस्ट

Madan Mohan Saxena said...

शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन.

बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

Emily Katie said...

Order Birthday Gifts Online
Best Birthday Gifts To India Online

Daisy said...

Order Cakes
Gifts Online

Post a Comment