"कहा था न तुमसे इस पत्थर में प्राण मत फूँकना" मूर्तिकार को आभास हुआ की ये आवाज़ उसकी बनायी मूर्ति से आयी है. शिल्पकार! तुम्हें याद है जब तुमने इस पहाड़ की चोटी पर पड़े कुछ बेतरतीब बेढब से चट्टान देखे थे.तुमने अपनी छेनी-हथौड़ी संभाल ली थी हाथों में.मन बना लिया था.इरादे पक्के कर लिए थे.पहाड़ की बेटी ने तभी तुम्हारी मंशा भाँप ली थी. कितने पत्थर लुढ्काए उसने तुम्हारे रस्ते में. तुम माने नहीं.यहाँ ऊपर चोटी तक चले आये. और चुना भी तो उस चट्टान को जिसमे पहाड़ की बेटी रहती थी.वो अपनी पूरी शक्ति से डटकर खड़ी रही कि तुम्हारे औज़ार निष्प्रभाव हो जाएँ. पर तुम ऐसे धुन के पक्के...माने नहीं.अपनी पूरी शक्ति लगा दी इस शिला को तराशने में.सिद्धहस्त हो!कितना सुन्दर रूप दे दिया तुमने इस पत्थर को.
पर एक बात में तुम कच्चे निकले! पता है तुम्हे दुर्गा पूजा के लिए महीनो पहले से मूर्तिकार माता की मूर्ति गढ़ने में पूरी तन्मयता से लगा होता है ताकि षष्ठी तक मूर्ति पूरी तरह से तैयार रहे. इस पूरे क्रम में उसे हर मोह,माया,कामना से ऊपर उठना होता है. माँ के अप्रतिम सौन्दर्य के प्रति उसके मन में बस श्रद्धा ही आनी चाहिए .अगर कोई अन्यथा भाव आ गया तो अनर्थ हो जायेगा.
चलो माना.तुम्हे माता की मूर्ति कहाँ बनानी थी. तुम तो बस कलाकार हो, संगतराश हो. तुम्हारे हाथो में फन है कि तुम शिला को तराश कर शिल्प बना सको.चाहे जैसा रूप दे सको.लेकिन एक शिल्पी को अपनी कृति पर मुग्ध होने का अधिकार नहीं होता.तुमने ये सीमारेखा पार कर दी.मुग्ध हुए सो हुए उस पर ये हठ कि अब इसमें प्राण भी फूंकने हैं.
लो! पत्थर में प्राण फूँक ही डाले तुमने! ये अनर्थ तुम्हे नहीं करना था. पत्थर में प्राण डाल हाड़-मांस का इंसान बना पाने की कूवत अगर तुममें होती तो इस मूर्ति के लिए फिर भी एक दुनिया होती. जिंदा इंसानों की भीड़ में इसे मिला देते.लेकिन अब क्या करोगे इसका?
एक काम करो. वहीं पहाड़ी पर एक मंदिर बना उसमे इसे स्थापित कर दो. लेकिन फिर एक मुश्किल होगी.तुम तो चल दोगे दूसरी मूर्तियाँ गढ़ने.पीछे जो इसकी आँखें गीली दिखेंगी लोगों को तो और सवाल उठेंगे.
सुनो! मैं बताती हूँ.भक्त तो भोले होते हैं.उन्हें बहलाया जा सकता है. इस मंदिर की कोई प्रथा चला दो.जैसे अमूमन हर मंदिर की होती है.कहीं देवी की मूर्ति का आलते से अभिषेक किया जाता है तो कहीं बलि की प्रथा होती है. यहाँ जलाभिषेक की प्रथा प्रचलित कर दो.मूर्ति नखशिखांत सदैव जल से नहायी रहे.नेत्रों की आर्द्रता अभिषेक के जल का ही हिस्सा लगे. एक कुंड भी बनवा देना मंदिर से लगे जहाँ से जल लिया जाये अभिषेक के लिए.मंदिर में चढ़ाये गए जल की निकासी भी इसी कुंड में हो. भोले भक्तों को कहाँ पता चलेगा की तथाकथित देवी के अश्रुओं से ही प्रतिदिन उनका अभिषेक किया जा रहा है.
कई साल बीत जाने के बाद जब तुम न रहोगे,जब बीच की कई पीढ़ियाँ लोप हो चुकी होंगी, ये बात एक लोककथा बन चुकी होगी. तब उस पहाड़ी के पास के किसी गाँव में कोई पोपले मुँह वाली बुढ़िया दादी बच्चों के एक झुण्ड को शाम के धुंधलके में कहानी सुना रही होगी,"एक था मूर्तिकार..." कहानी ख़त्म होने पर कोई जिद्दी बच्चा कहेगा,"मैं जाऊंगा छेनी-हथौड़ी लेकर मूर्ति बनाने उस पहाड़ी पर", तो दादी उसे झिड़केगी,"न रे! इस गाँव में अब किसी को भी पत्थर तराशने की अनुमति नहीं है."
कहते हैं वो मूर्तिकार कभी लौटकर नहीं आया. उस गाँव के सारे मूर्तिकारों ने अपनी छेनी-हथौड़ी उसी कुंड में डाल दी थी. उस पहाड़ी पर छेनी-हथौड़ी लेकर अब कोई नहीं जाता...और उस कुंड का पानी भीषण गर्मी में भी कभी नहीं सूखता...
पर एक बात में तुम कच्चे निकले! पता है तुम्हे दुर्गा पूजा के लिए महीनो पहले से मूर्तिकार माता की मूर्ति गढ़ने में पूरी तन्मयता से लगा होता है ताकि षष्ठी तक मूर्ति पूरी तरह से तैयार रहे. इस पूरे क्रम में उसे हर मोह,माया,कामना से ऊपर उठना होता है. माँ के अप्रतिम सौन्दर्य के प्रति उसके मन में बस श्रद्धा ही आनी चाहिए .अगर कोई अन्यथा भाव आ गया तो अनर्थ हो जायेगा.
चलो माना.तुम्हे माता की मूर्ति कहाँ बनानी थी. तुम तो बस कलाकार हो, संगतराश हो. तुम्हारे हाथो में फन है कि तुम शिला को तराश कर शिल्प बना सको.चाहे जैसा रूप दे सको.लेकिन एक शिल्पी को अपनी कृति पर मुग्ध होने का अधिकार नहीं होता.तुमने ये सीमारेखा पार कर दी.मुग्ध हुए सो हुए उस पर ये हठ कि अब इसमें प्राण भी फूंकने हैं.
लो! पत्थर में प्राण फूँक ही डाले तुमने! ये अनर्थ तुम्हे नहीं करना था. पत्थर में प्राण डाल हाड़-मांस का इंसान बना पाने की कूवत अगर तुममें होती तो इस मूर्ति के लिए फिर भी एक दुनिया होती. जिंदा इंसानों की भीड़ में इसे मिला देते.लेकिन अब क्या करोगे इसका?
एक काम करो. वहीं पहाड़ी पर एक मंदिर बना उसमे इसे स्थापित कर दो. लेकिन फिर एक मुश्किल होगी.तुम तो चल दोगे दूसरी मूर्तियाँ गढ़ने.पीछे जो इसकी आँखें गीली दिखेंगी लोगों को तो और सवाल उठेंगे.
सुनो! मैं बताती हूँ.भक्त तो भोले होते हैं.उन्हें बहलाया जा सकता है. इस मंदिर की कोई प्रथा चला दो.जैसे अमूमन हर मंदिर की होती है.कहीं देवी की मूर्ति का आलते से अभिषेक किया जाता है तो कहीं बलि की प्रथा होती है. यहाँ जलाभिषेक की प्रथा प्रचलित कर दो.मूर्ति नखशिखांत सदैव जल से नहायी रहे.नेत्रों की आर्द्रता अभिषेक के जल का ही हिस्सा लगे. एक कुंड भी बनवा देना मंदिर से लगे जहाँ से जल लिया जाये अभिषेक के लिए.मंदिर में चढ़ाये गए जल की निकासी भी इसी कुंड में हो. भोले भक्तों को कहाँ पता चलेगा की तथाकथित देवी के अश्रुओं से ही प्रतिदिन उनका अभिषेक किया जा रहा है.
कई साल बीत जाने के बाद जब तुम न रहोगे,जब बीच की कई पीढ़ियाँ लोप हो चुकी होंगी, ये बात एक लोककथा बन चुकी होगी. तब उस पहाड़ी के पास के किसी गाँव में कोई पोपले मुँह वाली बुढ़िया दादी बच्चों के एक झुण्ड को शाम के धुंधलके में कहानी सुना रही होगी,"एक था मूर्तिकार..." कहानी ख़त्म होने पर कोई जिद्दी बच्चा कहेगा,"मैं जाऊंगा छेनी-हथौड़ी लेकर मूर्ति बनाने उस पहाड़ी पर", तो दादी उसे झिड़केगी,"न रे! इस गाँव में अब किसी को भी पत्थर तराशने की अनुमति नहीं है."
कहते हैं वो मूर्तिकार कभी लौटकर नहीं आया. उस गाँव के सारे मूर्तिकारों ने अपनी छेनी-हथौड़ी उसी कुंड में डाल दी थी. उस पहाड़ी पर छेनी-हथौड़ी लेकर अब कोई नहीं जाता...और उस कुंड का पानी भीषण गर्मी में भी कभी नहीं सूखता...
11 comments:
तुम तो बस कलाकार हो, संगतराश हो. तुम्हारे हाथो में फन है कि तुम शिला को तराश कर शिल्प बना सको.चाहे जैसा रूप दे सको.लेकिन एक शिल्पी को अपनी कृति पर मुग्ध होने का अधिकार नहीं होता.
और उस कुंड का पानी भीषण गर्मी में भी कभी नहीं सूखता... ऐसे ही शब्द हरे रहें सदा के लिए...
तेरे शब्दों में कैसा जादू है रे! मन में वसंत खिलाने जैसा...अनगढ़ चीजों में इतनी सुंदरता देख लेने जैसा...किस शब्द पर ठहरूँ...और तू तो इतनी अपनी है की तेरी तारीफ भी करती हूँ तो लगता है कि अपनी तारीफ कर रही हूँ तो शब्द ही नहीं जुटते।
कैसा अद्भुत संसार रच दिया है...यहाँ से कौन लौट कर जाये वापस...मैं उसी पाषाण प्रतिमा के पास बैठी हूँ, अंजुली में उसके आँसू लिए...मेरे मन का अमलतास कब फूलेगा?
अजीब कहानी है ना इन मूर्तियों की भी, घंटों इनके सामने बैठे इनसे बात करते रहो, हर पल ऐसा लगता है जैसे ये आपको सुन रही है, इनकी जो स्थिरता है वो एक अलग शांति देती है| शायद इसीलिए इनके सामने जाकर मन हल्का हो जाता है और जब मन हल्का होता है तो मुश्किलों के हल खुद-ब-खुद निकलने लगते हैं |
पर तुम्हारा मूर्तियों से लगाव अलग सा है, कभी इसी मूर्ति में देवता आके ठहर जाते हैं और फिर वो कपूर बन उड़ जाते हैं, और कभी इनमे प्राण आ जाते हैं | पर जो भी होता है उसकी खूबसूरती को देख लेती हो तुम और ठीक वैसा ही लिख देती हो, मूर्ति भी सांस लेने लगती है !!!!!
आर के नारयणन की भी एक लघु-कथा है, जिसमे मूर्तिकार की मूर्ति में भगवान आ जाते हैं|शायद मालगुड़ी डेज़ से है , आज उसी की याद आ गयी, उसमे अंत में मूर्तिकार अपने को एक कमरे में बंद कर लेता है !!!!मूर्ति के साथ...
मैं उस संगतराश के पास हूँ या मूर्ति के पास ....... कहीं तो हूँ .
बात प्राण फूँकने की आती है तो देह से ऊपर उठ जाती है चेतना..
उस कुंड का पानी कैसे सूखेगा... आखिर उसमें कलाकार के आँसू जो हैं॥
I m just speechless..aise posts pe kya kahun bilkul samajh nahi aata...aapke likhne mein sach mein koi jaadu hai...
speechless speechless speechless
bahut sundar likhti ho smriti.....bahut hi sundar
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